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Eklavya ki kahani, cost, death, generation and poem- एकलव्य की कहानी, वंश, मृत्यु, जाति, अर्जुन से युध्द, एकलव्य गुरू दक्षिणा

क्या एकलव्य का पुत्र लड़ा था महाभारत में और किनके हाथों मारा गया

 

Image Source-Google|Image by-Subhrajit Roy | Kolkata



 

एकलव्य की कहानी-   एकलव्य  को कुछ लोग अपनी मान्यता के अनुसार शिकारी का पुत्र कहते हैं और कुछ लोग उसे भील का पुत्र मानते है। कुछ लोग यह कहकर समाज में प्रचार करते हैं कि शूद्र होने के वजा से एकलव्य  को गुरु द्रोण ने शिक्षा नहीं दी थी। लेकिन यह सभी बातें पूर्णरूप से गलत है। एकलव्य  न ही भील थे और न ही आदिवासी शूद्र थे। एकलव्य  निषाद जाति के थे। निषाद नाम की जाति आज भी हमारे भारत देश में निवास करती है।

एकलव्य का वंश-

 एकलव्य का वंश- एक काव्य में उल्लेख किया गया है कि पांडु, धृतराष्‍ट्र और विदुर की दादी सत्यवती एक निषाद जाति की कन्या ही थी। सत्यवती के पुत्र जिनका नाम है विचित्रवीर्य। विचित्रवीर्य की पत्नियों ने वेदव्यास के नियोग से दो पुत्रों को जन्म दिया और तीसरा पुत्र उनकी दासी का था। अम्बिका के  पुत्र हुये धृतराष्ट, अम्बालिका के पुत्र हुये- पांडु, और दासीपुत्र- विदुर थे। एकलव्य का वंश

महाभारत के समय में प्रयागराज के तटवर्ती प्रदेश में बहुतदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर स्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी (Capital) थी। एकलव्य का वंश एक मान्यता अनुसार वे श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था जिसे उन्होंने निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था। 

एकलव्य का वंश उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की ताकत हस्तिनापुर,चेदि, मथुरा, मगध और चन्देरी आदि बड़े राज्यों के बराबर ही थी। श्रृंगवेरपुर राज्य के निषादराज हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विश्व विख्यात थी। राजा राज्य का संचालन मंत्रि परिषद की सहायता से किया करता था। एकलव्य का वंश एकलव्य  निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। उनकी माताश्री का नाम सुलेखा था।

शुरूआत में एकलव्य  का नाम अभिद्युम्न रखा गया था। प्राय: लोग उसे अभय नाम से ही बुलाते थे। मात्र पांच वर्ष की उम्र में एकलव्य  की शिक्षा की व्यवस्था कुली के गुरुकुल में की गई। यही एक ऐसा गुरुकुल था जहां सभी जातियों के और समाज के उच्चवर्ग के लोग पढ़ते थे।

एकलव्य  एक राजपुत्र थे और उनके पिता की हस्तिनापुर कौरवों के राज्य में प्रतिष्ठा थी। बचपन से ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में एकलव्य  की लक्ष्य, लगन, एकाग्रचित और Hard work को देखते हुए गुरु ने अभिद्युम्न (एलकव्य के बचपन का नाम अभिद्युम्न था) का नाम 'एकलव्य ' रख दिया था। एकलव्य  के युवक होने पर एकलव्य  का विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषादमित्र की पुत्री सुणीता से करा दिया।

 

एकबार पुलकमुनि को एकलव्य  का आत्मविश्वास और धनुष बाण को सिखने की उसकी लगन को देखा तो उन्होंने उनके पिता हिरण्यधनु से कहा कि उनका पुत्र में सर्वश्रेष्ट धनुर्धर बनने के काबिल है, इसे सही शिक्षा मिल पाये इसके लिए आपको प्रयास करना चाहिए। पुलक मुनि की बात सुनकर हिरण्यधने बहुत प्रभावित हुये। राजा हिरण्यधनु, अपने पुत्र एकलव्य  को द्रोणाचार्य जैसे महान गुरु के पास ले जाते हैं, लेकिन गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ करुकुल और राज दरबार के लोगों को ही धनुष विद्या सिखायेंगे। ऐसा भीष्मपिताम्ह से वचनबद्ध थे इसलिए उन्होंने एकलव्य  को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देने से इनकार कर दिया। एकलव्य  के सूतपूत्र होने का कोई प्रमाम नहीं मिलता है। गुरु द्रोणचार्य ने सूत पुत्र कहे जाने वाले दानवीरकर्ण को भी तो शिक्षा दी थी।

द्रोणाचार्य  ने जिस अर्जुन को महान बनाने के लिए एकलव्य   का अंगूठा गुरू दक्षिणा में माँग लिया, उसी प्रिये अर्जुन के खिलाफ गुरू द्रोणाचार्य  को युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की हत्या का कारण भी द्रोण ही बने। और उसी अर्जुन के साले के हाथों गुरू द्रोणा को वध किया गया था। जिस तरह द्रोण ने छल से अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की हत्या की। उसी छल से अर्जुन के साले के हाथों द्रोणाचार्य की मृत्यु हुई।

एकलव्य के पुत्र का क्या नाम था ?

एकलव्य का वंश- एकलव्य  का एक पुत्र हुआ था जिसका नाम केतुमान था। एकलव्य  के युद्ध में वीरगति मिलने के बात उसका पुत्र केतुमान श्रृंगवेरपुर राज्य के सिंहासन पर बैठता है और वह कौरवों की सेना की तरफ से पांडवों के खिलाफ लड़ता है। महाभारत के युद्ध में वह महाबलीभीम के हाथ से मारा जाता है।

एकलव्य  के नोट्स की विशेषता –

 

 एकलव्य  के नोट्स की विशेषता- एक और कथा है एकलव्य  के बारे में- 

         एक बार एक पेड़ पर कुछ बच्चों को सिन्दर जैसा लाल एक लटकता हुआ दिखाई पड़ा। सभी बालक उसे पाने के लिए चेष्टा करने लगे किन्तु फल इतनी ऊँचाई पर था किसी के हाथ नहीं लगा। उन्हीं में से एक बालक बोला, तुम लोग व्यर्थ क्यों समय बर्बाद कर रहे हो, तीर तो हाथ में है क्यों नहीं गिरा लेते। बात कहते ही तीरों की बौछार होने लगी। किसी का भी तीर फल पर नहीं लगा। पेड़ में भी तीरों का समूह धँसकर लटकने लगा। बालक खड़ा-खड़ा सारा तमाशा देखता रहे। अन्त उस बालक ने एक तीर तानकर चलाया और पका फल टप से जमीन पर गिर पड़ा। इससे टोली में उसकी धाक जम गई। दोस्तों आप जानते है कि वह इंसान कौन था। एकलव्य  के नोट्स की विशेषता वह बालक एकलव्य   था।

कुछ दूसरे जगहों पर हमें ये लेख मिलते है और कुछ लोगों को ये भी मानना है आइये जानते है कि क्या- 

हस्तिनापुर के निकट वन में एक बस्ती का सरदार हिरण्यधेनु था इसका प्रभाव आधिक थआ इसलिए समूह के लोग उन्हें राजा का करते थे। एकलव्य   उन्ही को पुत्र था। एकलव्य   ने मन लगाकर अभ्यास करना आरम्भ किया। दिन-दिन भर जंगल में सूक्ष्म निशानों गर तीर चलाने का अभ्यास किया करता था एकलव्य  के नोट्स की विशेषता और कुथ दिनों बात तीर चलाने में उसकी बराबरी करने वाला हस्तिनापुर के आस-पास कोई रह नहीं गया। एकलव्य   और भी आधिक पुणता प्राप्त करना चाहता था परन्तु कोई साधन दिखाई न देता था।

 

एकलव्य  के नोट्स की विशेषता इसी बीच उसे पता चला कि हस्तिनापुर में राजकुमारों को बाण-विद्या की शिक्षा देने के लिए कोई बड़े आचार्य आए है, इनके समान बाण-विद्या में दक्ष उस समय कोई नहीं था। उसके मन में आया कि मैं भी क्यों न उन्ही से चलकर सीखूँ, पर तुरन्त ही उसने सोचा कि वे तो राजकुमारों के गुरू है

 

उन्हें सिखाते हैं, मैं निर्धन हूँ, मुझे वह सिखाएंगे कि नहीं। यह शंका उसके मन में बनी  रही। फिर भी उसने भाग्य की परीक्षा लेनी चाही और वह हस्तिनापुर के लिए चल पड़े।

 

हस्तिनापुर में जो गुरू राजकुमारों को बाण चलाने की कला सिखाते थे. उनका नाम था द्रोण। आरम्भ से ही उन्होंने शस्त्र सीखा था और वे बाण-विद्या के आचार्य थे। इसलिए उनका नाम द्रोणाचार्य  हो गया।

कहा जाता है, उनके जैसा बाण चलाने वाला कोई नहीं था। एकलव्य  के नोट्स की विशेषता वे हस्तिनापुर के राजकुमार दुर्योधन, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि को बाण-विद्या सिखाते थे। उन्हों के साथ-साथ और भी दुसरे स्थानों के राजकुमार आचार्य की ख्याति सुनकर धनुर्विद्या सीखने हस्तिनापुर आकर उनके शिष्य बन गए थे।

 

दोपहर के समय गुरू तथा पाण्डु वंश के राजकुमार और अन्य प्रान्तों के राजकुमार बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे। रंगभूमि के भीतर जाने का साहस न होने के कारण एकलव्य  वहां पहुँचने के बाद वहीं खड़ा-खड़ा राजकुमारों का अभ्यास देखने लगा और देखने में इतना लीन हो गया कि अपनेको भी भूल गया।

राजकुमारों में बाण चलाने में अर्जुन सबसे श्रेष्ठ थे। एकलव्य  ने देखा कि एक खूँटे पर मिट्टी की एक चिड़िया रखी है तथा थोड़ी दूर पर दूसरे खँटे पर तीर की एक चूड़ी लगी है। निश्चित दूरी से इस प्रकार 

एकलव्य  के नोट्स की विशेषता तीर चलाना है कि वह चूड़ी के भीतर होता हुआ चिड़िया की आँख भेद दे। सभी राजकुमार द्रोण का संकेत पाकर तीर चला रहे थे, परन्तु किसी का भी तीर निश्चित स्थान पर नहीं लग रहा था। इधर राजकुमार अपने अभ्यास में इतने लीन थे कि उन्होंने एकलव्य   को नहीं देखा। एकलव्य  के नोट्स की विशेषता अन्त में जब एक राजकुमार का तीर आँख छूकर पृथ्वी पर गिरा तो एकलब्य से न रहा गया। उसके मुख से निकल पड़ा, वाह-वाह ! केवल थोड़ी कुशलता की और आवश्यकता थी।

 

एकलव्य  के नोट्स की विशेषता यह सुनकर सबका ध्यान दिवार की ओर गया वहाँ उन्होंने देखा एक युवक खड़ा है। चौड़ा कन्धा है, शरीर के सब अंग सुडोल मानो किसी साँचे में ढले हैं। तीर और धनुष भी है किन्तु शरी पर केवल धोती है। द्रोणाचार्य  की भी दृष्टि उधर गई। सब लोग एकटक उधर देखने लगे। आचार्य ने कुथ क्षण के बाद उसे संकेत से बुलाया। एकलव्य   धीरे से उनके पास गया और चरण छूकर प्रणाम करके खड़ा हो गया। द्रोणा ने ध्यान से उसे सिर से पाँव तक देखा और पूछा, तुम निशाना लगा सकते हो, यह प्रश्न सुनकर उसने कहा- हो मैं लगा सकता हूँ। और फिर कुछ पुछे बिना ठीक स्थान पर जाकर उसने तीर चलाया और तीर आँख बेधता हुआ निकल गया। सब लोग चकित हो गए। द्रोणाचार्य  के पूछने पर उसने अपना नाम एकलव्य   बताया।

 एकलव्य  के नोट्स की विशेषता द्रोणाचार्य  इस बालक के कौशब से प्रसन्न हुए, परिचय पुछने के बाद आने का कारण पूछा। एकलव्य   ने सब बताकर धुनर्विद्या सीखने की आभिलाषा व्यक्त की। द्रोणाचार्य  ने इस विषय  अपनी विवशता व्यक्ति की। एकलव्य   की सारी आशाएं क्षणभर में नष्ट हो गई। बड़ी निराशा और दुख भरे स्वर में उसने कहा, मैं तो आपको गुरू मान चुका हूँ, इतना कहकर उनके चरण छुकर वह चल दिया। जंगल में एक स्वच्छ स्थान पर उसने द्रोणाचार्य  की मिट्टी की मूर्ति बनाकर स्थापित की। वह प्रातकाल और संध्या समय उसकी पूजा करता और दिन-प्रतिदिन बाण चलाने का अभ्यास करता।

 

बहुत दिनों के बाद जब राजकुमार बाण-विद्या में निपुण हो एक तब सब लोग जंगल में शिकार खेलने गए।   घोड़े पर ये लोग एक हिरण का पीछा कर रहे थे कि अचानक बाणों की वर्षा हुई और जो जहाँ था वहीं रह गया । राजकुमार घोड़ो से उतरे। उन्होंने देखा कि घोड़ के पैरों के चारों ओर बाण पृथ्वी में घुसे है। घोड़े चल नहीं सकते। आगे बढ़ने पर जटा-धारी एक युवक मिला जो एक मूर्ति के सम्मुख बैठा था।

राजकुमारों ने पुछा- श्रीमान! अपने धनुर्विद्या कहाँ से सीखी? एकलव्य   ने कहा, आप मूर्ति नहीं पहचानते?

 

यह द्रोणाचार्य  की मूर्ति है यही बाण-विद्या के हमारे गुरू है।

 

 

एकलव्य की कहानी राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य, क्योंकि द्रोणाचार्य  ने उनसे कहा था कि तुम लोगों के अतिरिक्त हम किसी को बाण विद्या नहीं सिखाते। लौटकर उन्होंने सारी कथा आचार्य को सुनाई। अर्जुन बहुत दुखी हुए, क्योंकि वे समझते थे कि मेरे समान बाण चलाने वाला कोई नहीं है। एकलव्य की कहानी द्रोणाचार्य  ने उन्हें समझाया-बुझाया और सबको लेकर उस युवक से मिलने गये।

  

 

एकलव्य   ने द्रोणाचार्य  को देखा और भक्ति तथा श्रद्धा से उनके चरणों पर गिर गया। उसने कहा आप मुझे नहीं पहचानेंगे। मैं वही एकलव्य   हूँएकलव्य की कहानी जिसे आपने शिक्षा देना स्वीकार नहीं किया था। आपको मैंने गुरू मान लिया था। यह आपकी प्रतिमा है। आपकी कृपा से मैंने आज बाण चलाने में सफलता प्राप्त कर ली है।

एकलव्य की कहानी द्रोणाचार्य  ने सोचा कि मैंने अर्जुन को आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे समान संसार में तीर चलाने वाला दूसरा कोई न होगा। द्रोणाचार्य  ने कहा- तुम्हारी कला और गुरू भक्ति देखकर बड़ी  प्रसन्नता हुई। अब हमें गुरू-दक्षिणा दो। एकलव्य   ने कहा- आज्ञा दीजिए गुरूवर! द्रोणाचार्य  ने कहा-मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल अपने दाहिने हाथ का अँगूठा दे दो। एकलव्य   बोला- यह तो आपने कुछ नहीं माँगा, लीजिए। इतना कहकर उसने अपने दहिने हाथ का अँगूठा काटकर उनके चरणों पर रख दिया।

 

सच है- श्रद्धया लभते ज्ञानम् – श्रद्धा से ज्ञान की प्रप्ति होती है”

 

 

गुरू द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा क्यों मांगा? (एकलव्य गुरू दक्षिणा)

क्योंकी गुरू द्रोणाचार्य  ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने को वचन दे दिया था, गुरू द्रोणाचार्य  ने जब अपनी प्रतिमा देखी तो कहा अगर तुम मुझे अपना गुरू मानते हो तो तुम मुझे गुरू दक्षिणा दो। एकलव्य   ने कहा गुरू देव आपको गुरू दक्षिणा में क्या चाहिए, वैसे तो एकलव्य   अपने प्राण तक देने के लिए तैयार थे। लेकिन गुरू द्रोण ने दाँया हाथ का अँगूठा मांगा। जो कि एकलव्य   ने खुशी-खुशी दे दिया। गुरू ने इसलिए माँगा कि वह जानते थे अगर मैंने ऐसा न किया तो एकलव्य   दुनिया का महान धनुर्धर बन जायेगा। और अर्जुन को दिया हुआ वचन झूठा हो जायेगा। गुरू द्रोणाचार्य , एकलव्य   का निशाना देखकर समझ गये थे।

 

 

एकलव्य   कौन था उसने क्या संकल्प किया?

एकलव्य   को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाने जाते है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य के शासक बने। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उनहोने न केवल अपने राज्य का संचालन किया , बल्कि निषादों की 

एक सशक्त सेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

 

एकलव्य   की कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?

महान धनुर्धर एकलव्य   की कहानी बात उस समय की है, जब शिक्षा का रूप आज से बहुत अलग हुआ करता था। ... विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए सब अपने गुरुके पास आश्रम में ही रहते थे| सभी मिलजुल कर एक परिवार की तरह रहते और मिल बाँट कर सब काम किया करते थे। 

सभी शिष्य बड़ी निष्ठा और ईमानदारी के साथ शिक्षा प्राप्त करते थे।

 

एकलव्य की मृत्यु कैसे हुई? एकलव्य का वध

 

 

द्रोण ने एकलव्य   से गुरु दक्षिणा में एकलव्य   के दाएं हाथ का अगूंठा मांग लिया। ... एकलव्य   अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। महाभारत युद्ध में कृष्ण ने एकलव्य   को भी छल से वध किया था।

 

एकलव्य किसका अवतार था?

द्रौपदी का भाई ही एकलव्य   का अवतार था।

जब भगवान श्री कृष्ण जी रूक्मिणी को विवाह के लिए लेकर जा रहे थे तभी जरासंध और शिशुपाल ने उनका पीछा किया। जिसमें एकलव्य   ने जरासंध का साथ दिया था। और कृष्ण ने एकलव्य   का वध कर दिया था। लेकिन एकलव्य   की गुरू निष्ठा के कारण उसे कृष्ण ने अवतार का वरदान दिया।

 

एकलव्य का अंगूठा क्यों मांगा?

क्योंकी गुरू द्रोणाचार्य  ने अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने को वचन दे दिया था, गुरू द्रोणाचार्य  ने जब अपनी प्रतिमा देखी तो कहा अगर तुम मुझे अपना गुरू मानते हो तो तुम मुझे गुरू दक्षिणा दो। एकलव्य   ने कहा गुरू देव आपको गुरू दक्षिणा में क्या चाहिए, वैसे तो एकलव्य   अपने प्राण तक देने के लिए तैयार थे। लेकिन गुरू द्रोण ने दाँया हाथ का अँगूठा मांगा। जो कि एकलव्य   ने खुशी-खुशी दे दिया। गुरू ने इसलिए माँगा कि वह जानते थे अगर मैंने ऐसा न किया तो एकलव्य   दुनिया का महान धनुर्धर बन जायेगा। और अर्जुन को दिया हुआ वचन झूठा हो जायेगा। गुरू द्रोणाचार्य , एकलव्य   का निशाना देखकर समझ गये थे।

 

अंगूठा कटने के बाद एकलव्य का क्या हुआ?

एकलव्य   को अप्रतिम लगन के साथ स्वयं सीखी गई धनुर्विद्या और गुरुभक्ति के लिए जाने जाते है। पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य के शासक बने। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उन्होने न केवल अपने राज्य का संचालन किया , बल्कि निषादों की 

एक सशक्त सेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार किया।

 

एकलव्य किसके पुत्र थे?

एकलव्य श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र थे। कुछ भी इनसे जुड़ी बाते-

महाभारत के समय में प्रयागराज के तटवर्ती प्रदेश में बहुतदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर स्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी (Capital) थी। एक मान्यता अनुसार वे श्रीकृष्ण के चाचा का पुत्र था जिसे उन्होंने निषाद जाति के राजा को सौंप दिया था। लेकिन कुछ मान्यता के अनुसार कहा जाता है हस्तिनापुर के निकट वन में एक बस्ती का सरदार हिरण्यधेनु था इसका प्रभाव आधिक था इसलिए समूह के लोग उन्हें राजा का करते थे। एकलव्य  उन्ही को पुत्र था।

 

 

कर्ण के गुरू कौन थे?

महाभारत के अनुसार कर्ण के तीन गुरु थे जिसने नाम है द्रोणाचार्य , कृपाचार्य और परशुराम। आदि पर्व, शान्ति और वानपर्व में उसका एक वित्रित वर्णन है। द्रोणाचार्य  ने कर्ण को सारी शिक्षा दि, लेकिन ब्रह्मासत्र देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण की परवरिश एक नीची जाति में हुई थी (वैसे तो कर्ण सूर्यपुत्र थे जो कुन्ति के विवाह होने से पहले ही सूर्य भगवान ने वरदान स्वरूप में दिया था।) द्रोणा शाही परिवार के गुरू थे तो कर्ण परशुराम के पास चला गया। और वहाँ पर ब्रह्मासत्र की शिक्षा ली।...

 

 

महाभारत के अनुसार कर्ण के गुरु द्रोणाचार्य , कृपाचार्य और परशुराम थे।?

 

महाभारत के अनुसार कर्ण के तीन गुरु थे जिसने नाम है द्रोणाचार्य , कृपाचार्य और परशुराम। आदि पर्व, शान्ति और वानपर्व में उसका एक वित्रित वर्णन है। द्रोणाचार्य  ने कर्ण को सारी शिक्षा दि, लेकिन ब्रह्मासत्र देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण की परवरिश एक नीची जाति में हुई थी (वैसे तो कर्ण सूर्यपुत्र थे जो कुन्ति के विवाह होने से पहले ही सूर्य भगवान ने वरदान स्वरूप में दिया था।) द्रोणा शाही परिवार के गुरू थे तो कर्ण परशुराम के पास चला गया। और वहाँ पर ब्रह्मासत्र की शिक्षा ली।...

 

एकलव्य की जाति क्या है? एकलव्य की जाति,

अभी तक आप ने जो भी बाते सुनी है वह सब गलत है एकलव्य   एक गरीब शिकारी परिवार थे। जो जंगल में रहकर शिकार करते थे। यह परिवार न तो भील था न ही आदिवासी था। वे एक निषाद जाति के रहने वाले थे। निषाद जाति आज भी हमारे भारत देश में निवास करती है।

 

द्रोणाचार्य की मृत्यु कैसे हुई?

गुरू द्रोणाचार्य  की मृत्यु महाभारत में उनके प्रिय शिष्य अर्जुन के हाथों हुई थी। क्योंकि द्रोणार्चाय अधर्म की तरफ से लड़ रहे थे और अर्जुन ने द्रोणाचार्य  को छल से मारा था। क्योंकि द्रोणाचार्य  और सब कौरवों ने मिलकर अभिमन्यु को छल से मारा था।

 

द्रोणाचार्य  ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य   का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले के हाथों उनकी मृत्यु को प्राप्त हुए थे। ... 

द्रोणाचार्य  ने जिस अर्जुन को महान बनाने के लिए एकलव्य   का अंगूठा गुरू दक्षिणा में माँग लिया, उसी प्रिये अर्जुन के खिलाफ गुरू द्रोणाचार्य  को युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की हत्या का कारण भी द्रोण ही बने। और उसी अर्जुन के साले के हाथों गुरू द्रोणा को वध किया गया था। जिस तरह द्रोण ने छल से अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की हत्या की। उसी छल से अर्जुन के साले के हाथों द्रोणाचार्य  की मृत्यु हुई।

 

 

महाभारत में कितने पर्व होते है?

वेदव्यास जी द्वारा लिखा गया महाग्रंथ यानि महाभारत की रचना की है। उसमे कुल 18 पर्व है।

आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, स्वर्गारोहण पर्व और आश्रम्वासिक पर्व।

 

 

एकलव्य  का अर्थ क्या है?

एकलव्य   नाम का अर्थ "जो अपने गुरु के प्रति समर्पण के लिए प्रसिद्ध है, एकलव्य   महाभारत में एक चरित्रवान नाम है जो द्रोणाचार्य  के शिष्य" थे।

 

क्यों एकलव्य को सिखाने तीरंदाजी को द्रोण कचरे किया?

 

द्रोणाचार्य  शाही परिवार के शिक्षक थे।

एकलव्य   एक बस्ती के सरदार हिरण्यधेनु के पुत्र थे। एकलव्य   सूक्ष्म निशानों पर तीर चलाने के लिए अभ्यास किया करता था। हस्तिनापुर में जो गुरू राजकुमारों को बाण चलाने की कला सिखाते थे। उनका नाम द्रोणा था। जो शस्त्र और बाण-विद्या के आचार्य थे। जो राजकुमारों को ही शिक्षा देते थे। इसलिए एकलव्य   को शिक्षा देने में असमर्थ थे।

 

 

 

 

 


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